अगर हमारे प्रिय पापाजी कहीं होंगे
तो वो कया सोच रहे होंगे?
उन्हीं को समर्पित ये रचना :
बंधा था मैं, एक फ़िरकी से,
और लिपटा था मैं मांझे सा;
जो उड़ने लगा, तो अलग हुआ,
फिर कट गया और बहने लगा;
फिरकी की नज़र से ओझल हुआ,
जो छोड़ गया कुछ ऊलझने थी;
जिनहे देखता हूँ तो सोचता हूँ
जब लीपटा था तो कैसा था ?
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